धीरेंद्र गोपाल
गोरखपुर. कुलपति महोदय, मेरी 32 माह की शोधवृत्ति जानबूझकर रोकी गई है। 15 अक्तूबर 2014 से मैं लगातार इस संबंध में आपको पत्र लिख रहा हूं। व्यक्तिगत रूप से विवि के सक्षम प्राधिकारियों और आपसे मिल चुका हूं। लेकिन कोई सुनवाई नहीं हो रही है। इस दौरान लगातार मेरी उपेक्षा की जा रही है। विवि में शोधवृत्ति कार्य देख रहे बाबू मुझे लगातार अपमानित कर रहे। जानकारी लेने के दौरान मुझे अपशब्द और जातिसूचक अपशब्द कहे जा रहे। एक दलित होने के नाते मानसिक, शारीरिक और आर्थिक उत्पीड़न किया जा रहा।
यह पत्र मैं मानसिक दबाव में लिख रहा। इस दबाव का एकमात्र कारण शोधवृत्ति न मिलना और इस क्रम में जिम्मेदारों द्वारा मेरा मानसिक उत्पीड़न है। मैं घर में सबसे बड़ा हूं। मेरी चार अविवाहित बहनें हैं। पिता भी सेवानिवृत्ति के करीब हैं।
यह एक दलित शोध छात्र का पत्र है जो गोरखपुर विश्वविद्यालय के कुलपति अशोक कुमार को लिखा गया है। 13 फरवरी 2016 को यह पत्र विवि के कुलपति कार्यालय को रिसीव कराया गया है। पत्र को पढ़कर यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि कहानी क्या है और हमारे जिम्मेदार कितने संवेदनशील।
एक तरफ जहां पूरा देश एक दलित छात्र रोहित बेमुला की आत्महत्या को लेकर पक्ष और विपक्ष में बहस-मुहाबिसों में व्यस्त है वहीं दूसरी तरफ एक अतिपिछड़े क्षेत्र गोरखपुर में स्थित दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय में एक दलित छात्र का पत्र बौद्धिकपट्टी में दलितों के प्रति हो रहे अनाचार को उजागर कर रहा। वर्ष 2008 में जेआरएफ पास करने के बाद दलित समुदाय से ताल्लुक रखने वाले शैलेष भी बड़े अरमान के साथ गोविवि में आया था। बूढ़े मां-बाप भी बेटे की सफलता पर फूले नहीं समा रहे थे। हो भी क्यों न बेटे को पढ़ने के लिए धन के लिए किसी का मुंह ताकना जो नहीं पडे़गा। लेकिन विवि कैंपस में पहुंचने के बाद उसे जिंदगी के कई कटु सत्य से भी सामना होने लगा।
एक साल तक उसे शोध के रजिस्ट्रेशन कराने में ही दौड़ लगानी पड़ी। हालांकि, इस दौरान विवि के गुरुजन उसका भरपूर दोहन करते रहे। खैर एक साल के अथक प्रयास के बाद 24 जून 2009 को उसका शोध पंजीकरण हो गया। पंजीकरण होते ही उसे पुराने सारे कटु अनुभव भूल गए। लेकिन यहीं सब तो खत्म होना नहीं था। पीड़ित बताता है कि 2011 अक्तूबर में वह बीमार पड़ गया। कुछ दिनों के लिए एम्स जाना पड़ा। वापस आया तो उससे अध्यापन और शोध कार्य तो कराया गया लेकिन हस्ताक्षर बनाने से मना कर दिया गया। इस दौरान बगैर हस्ताक्षर बनवाए उससे काम लिया गया। पीड़ित ने बताया कि वह लगातार आता रहा और अध्यापन और शोध कार्य दोनों करता रहा। 16 जुलाई 2012 से उससे फिर हस्ताक्षर बनवाया जाने लगा।
उसे अध्यापन का अनुभव प्रमाण-पत्र भी जारी किया गया लेकिन शोधवृत्ति नहीं दी गई।पीड़ित शैलेश बताते हैं कि इसी बीच तीन विभागाध्यक्ष बदले। सबने उससे काम लिया लेकिन वह चिरौरी करता रहा पर किसी ने उसकी नहीं सुनी। करीब दो साल का वक्त बीतने के बाद शैलेष ने लड़ाई लड़ने की सोची। फिर जनसूचना मांगी, पत्राचार किया लेकिन हर जगह उसे दोयम दर्जे का समझ सुना नहीं गया। पीड़ित बताता है कि 32 महीने की उसकी शोधवृत्ति बाकी है। 21600 रुपये प्रतिमाह उसे यूजीसी से मिलता है। शैलेष की मानें तो दलित होने के नाते उसे हर जगह दुत्कार दिया जा रहा है।